आगा हश्र कश्मीरी:न यादें बची न निशानियां
वाराणसी। साहित्य और कला के लिए जाने जाने वाला शहर बनारस बदलते समय में अपने अदबी(साहित्यिक) धरोहरों से दूर होता जा रहा है। शहर में चुनिंदा जगहों की दिवारों पर उकेरी गई कलाकारों, साहित्यकारों की तस्वीरों के पीछे के अंधेरे में साहित्यकारों, कलाकारों से जुड़ी निशानियां, स्मृतियां बची तक नहीं है। कला -संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए दशकों पहले करोड़ों रुपए लगाकर जिस सांस्कृतिक संकुल की स्थापना की गई थी वहां न तो कोई कला दीर्घा बनी न ही नियमित सांस्कृतिक आयोजनों की शुरुआत। इसके एक हिस्सा बारात घर बनकर रह गया तो दूसरे हिस्से में मेला वगैरह लगता रहता है।पारसी रंगमंच के पितामह कहे जाने वाले आगा हश्र कश्मीरी का नारियल बाजार (दालमंडी) वाले घर को बिल्डर का बुल्डोजर जमींदोज कर चुका है। उन्हें याद करते हुए उनके वंशज आगा इमरान कहते है " किसे फिक्र थी आशियां बचाने की, सब चाहते थे बस मुनाफा कमाना सो उनके अपनों ने ही ये कारनामा कर दिखाया। आगा इमरान कहते वो घर जिसमें आगा हश्र कश्मीरी का जन्म हुआ जहां रहकर उन्होंने कई नाटक लिखे वो घर नहीं नहीं रहा। अब कितने लोगों को पता है कि आगा हश्र कश्मिरी कौन थे। यहां के साहित्यक समाज से क्या लेना - देना । इमरान कहते है बेहतर होता उनकी यादों को हम संजोते तो आने वाली पीढ़ियां पारसी रंगमंच के इस पितामह के बारे में जानती लोग इस शहर के बहुआयामी सांस्कृतिक विरासत से दो चार होते लेकिन अब तो कुछ नहीं बचा।
काशी विश्व की एकमात्र जीवंत नगरी है।यहां की पीढ़ियों की परंपरा में एक परंपरा नटराज शिव शंकर के स्वरूपों को भी दर्शाती है।त्रिलोक धारी शिव शंकर की इस नगरी में नाटककारों की त्रिमूर्ति कालांतर में पैदा हुई। इसका आरंभ भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र से हुआ,तत्पश्चात पारसी रंगमंच के व्यावसायिक नाटक कार आगा हश्र काश्मीरी और प्रायः उनके समकालीन है जय शंकर प्रसाद। इन लोगो के साहित्यिक अवदान से रंगमंच एवं नाट्य साहित्य कालजई तौर पर समृद्ध हुआ।
ऐसा नहीं की आगा हश्र कश्मीरी ने केवल पारसी रंगमंच को ही मजबूत किया उन्होंने हिन्दी में नाटक लिखे। हिन्दी में सीता वनवास, भीष्म पितामह, धर्मी बालक, मधुर मुरली जैसे नाटक उनके बहुआयामी व्यक्तित्व को बताते हैं। उनकी प्रतिभा ने उन्हें शेक्सपियर ए हिंद का खिताब दिलाया।
जन्मजात इस नाटक कार ने व्यावसायिक कंपनियों की बाध्यताओं, एवं कारोबारी प्रतिबंधों से दुखी हो कर अपनी निजी कंपनी THE GREAT SHAKESPEARE COMPANY ki स्थापना की। फिल्म शीरी - फरहाद के डायलॉग भी आगा हश्र कश्मीरी ने लिखा फिल्म चंडी दास के गाने भी लीखे।
आगा हश्र मूलतः उर्दू साहित्य के रचयिता थे किंतु उस समय 1898 से 1915 के आसपास तक उन्होंने पारसी धन पशुओं की व्यावसायिक स्वार्थों को पूर्ति हेतु विवश हो कर उर्दू हिंदी मिश्रित नाटक भी लिखे। उनके उर्दू नाटकों में असीर हिर्स,मुरीद ए शक,मार ए आस्तीन, सफ़ेद खून,यहूदी की लड़की।
आगा हश्र कश्मीरी को लाहौर में उनकी वसीयत के अनुसार उनकी शरीक ए हयात के बगल में उन्हें सुपुर्द ए खाक किया गया। हजारों की भीड़ इकठ्ठा करने वाले इस पारसी रंगमंच के पितामह के आखिरी सफर में कुछ ही लोग शरीक हुए थे।
आगा इमरान के पास पास आगा हश्र कश्मीरी से जुड़े बस दस्तावेज भर रह गये है जिनको बड़ी ताकीद से वो संभाल कर रखे हुए हैं। वो चाहते है शहर में ऐसी कोई जगह बने ऐसी कोई कला दीर्घा बने जहां आगा हश्र कश्मीरी ही नहीं शहर के बड़े कलमकार, कलाकारों से जुड़ी चीजों को संजोकर रखी जाए ताकि कला - संस्कृति के शहर में आने वाले शहर के इस बहुआयामी थाती को जाने।
लेकिन फिलहाल तो बेरस होता जा रहा बनारस यही कह रहा है," हमरी अटरिया पर आओ न सांवरिया ताका-झांकी तनिक होई जाए रे!
भास्कर गुहा नियोगी
I was delighted beyond all points of expressions to see my story of an all by myself endeavour as a sustainer of the literary legacy of AGH HASHRA KASHMIRI sb. Likewise I have no words to express my gratitude to Bhaskar Niyogi ji for flashing out my agonised narrative of shock I suffered after the demolition of the home where the Indian Shakespeare and the greatest playright of urdu literature was born...….
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