1/17/2019

वाराणसी: लोकसभा चुनाव 2019: कांग्रेस ने एक दशक पहले का इतिहास दोहराया तो मुश्किल में पड़ सकता है सपा-बसपा गठबंधन


सरफ़राज़ अहमद
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2009 में सपा सुप्रीमों मुलायम ने कांग्रेस से गठबंधन से किया था इंकार। सपा को खानी पड़ी थी मुंहकी। बसपा को भी लगा था झटका।


वाराणसी. लोकसभा चुनाव नें कुछ ही महीने शेष हैं। सपा-बसपा ने यूपी में गठबंधन कर सियासी हल्कों में चर्चाओं को हवा दे दी है। वहीं इस गठबंधन से कांग्रस को अलग अपनी मजबूती का दावा पेश किया है। वहीं कांग्रेस ने भी पलटवार करते हुए सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है। इस तरह बीजेपी को हराने के लिए एकजुटता का शोर अब थम सा गया है। फौरी तौर पर राजनीतिक विश्लेषक भी सपा-बसपा गठबंधन को काफी मजबूत करार दे रहे हैं। सपा सुप्रीमों अखिलेश यादव ने 2017 की दोस्ती को तोड़ दिया है। वजह साफ है 2017 यूपी विधानसभा चुनाव में मोदी के करिश्में के चलते इस गठबंधन को करारी शिकस्त झेलनी पड़ी थी। उसके बाद गोरखपुर, फूलपुर और केराना उपचुनाव में सपा-बसपा गठबंधन को शानदार जीत हासिल हुई। इससे उत्साहित दोनों दलों ने 2019 आम चुनाव के लिए हाथ मिला लिया है। लेकिन कुछ राजनीतिक विश्लेषक दबी जुबान अतीत के चुनावों की चर्चा करते हुए इस गठबंधन को लेकर बहुत आशान्वित नहीं हैं। उनका कहना है कि इस आम चुनाव नें इन तीनों की ही प्रतिष्ठा दांव पर होगी।

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि माना कि यूपी में कांग्रेस 1989 के बाद से सियासी हाशिये पर है। लेकिन ऐसा यूपी ब चुनाव परिणाम को लेकर ही है। विधानसभा और लोकसभा चुनावों में काफी अंतर होता है। वो कहते हैं कि 2014 का आम चुनाव एंटी कंवेंसिव इलेक्शन था, जिसमें नरेंद्र मोदी के ग्लैमर से मतदाताओं को एकतरफा ध्रवीकरण हुआ जिसमें समूचा विपक्ष धराशाई हो गया। लेकिन इससे पहले के चुनाव परिणाम पर नजर डालें तो कांग्रेस की स्थिति बहुत बदतर नहीं रहा। अगर 2009 के आंकड़ों पर नजर डालें तो तब कांग्रेस ने प्रदेश की 80 से 67 सीटों पर अकेले ही चुनाव लड़ा था। तब सपा सुप्रीमों मुलायम सिंह ने कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने से इंकार कर दिया था। लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद समाजवादी पार्टी के नेताओं को पछतावा होने लगा था कि अगर उन्होंने कांग्रेस को कुछ और सीटें देना स्वीकार कर लिया होता और समझौता हो जाता तो चुनाव में पार्टी को वैसा नुक़सान नहीं होता जैसा हुआ। वहीं कांग्रेस के नेता कह रहे थे कि नतीजे इससे बेहतर हो सकते थे अगर कांग्रेस ने अकेले चुनाव लड़ने का फ़ैसला तीन महीने पहले कर लिया होता और यह समय समाजवादी पार्टी से तालमेल करने की बातचीत में न गंवाया होता।

बता दें कि 2009 से पहले 2004 के चुनाव में कांग्रेस को 12 प्रतिशत वोट मिले थे और पार्टी ने नौ सीटों पर जीत हासिल की थी। इस लिहाज से 2009 में कांग्रेस के मत प्रतिशत में 14 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी हुई। तब तत्कालीन यूपी कांग्रेस अध्यक्ष डॉ रीता बहुगुणा जोशी ने कहा था कि "हम 20 प्रतिशत वोट पाने की अपेक्षा कर रहे थे लेकिन जनता ने हमें 26 प्रतिशत वोट दिया है जो जैकपॉट है।" उस वक्त राजनीतिक विश्लेषकों का कहना था कि कांग्रेस को ग़रीबों और किसानों के लिए चलाई गई योजनाओं का लाभ मिला है, जिसमें रोज़गार गारंटी योजना और कर्ज़ माफ़ी शामिल है। उस वक्त भी यूपी में सभी सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला तत्कालीन कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी का था।

अब राजनीतिक विश्लेषक कह रहे हैं कि जिस तरह से कांग्रेस ने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ और राजस्थान में फिर से किसानों का कर्ज माफ किया और उनके हित में जो योजनाएं लागू की हैं, वह कांग्रेस के लिए लोकसभा चुनाव में फायदेमंद साबित हो सकता है। फिर कांग्रेस लगातार किसानों और युवाओं पर ही टार्गेट किए है। वह बार-बार मौजूदा केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री पर किसान और युवाओं को ठगने का आरोप लगा रही है। खुद कांग्रेस अध्यक्ष बार-बार किसानों और युवाओं की बात कर रहे हैं। बेरोजगारी को आड़े हाथ ले रहे हैं। पीएम मोदी और भाजपा के हर साल दो करोड़ युवाओं को रोजगार देने के वादे की याद दिला रहे हैं तो किसानों के आत्महत्या का मसला उछाल रहे हैं। यूपी में कांग्रेस किसान सम्मान यात्रा निकालने जा रही है। वहीं किसान नेता हैं कि वो किसानहित के मुद्दे पर केंद्र की बीजेपी सरकार के साथ यूपी की सपा-बसपा सरकारों को भी निशाने पर ले रहे हैं। किसान कांग्रेस नेता श्याम पांडेय ने पिछले दिनों बनारस में ही किसानों और मीडिया से बातचीत में सपा-बसपा को भी निशाने पर लिया था। वैसे कांग्रेसी भी इस बात से गदगद हैं कि अब पार्टी के ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपना दमखम दिखाने का मौका मिलेगा।

उधर कुछ विश्लेषकों का मत है कि 2012 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 403 में से 355 सीटों पर चुनाव लड़ा और 28 सीटों पर जीत हासिल की थी जबकि 31 सीटों पर दूसरे स्‍थान पर रही और कुल पड़े वोट का 11.6% मत ही उसे मिला। इसके दो साल बाद हुए लोकसभा चुनाव में मोदी की सुनामी में कांग्रेस का वोट शेयर 11.6 से घटकर 7.5 प्रतिशत रह गया। पार्टी राज्‍य की 80 लोकसभा सीटों में से 67 पर चुनाव लड़ी और सिर्फ रायबरेली और अमेठी में ही जीत सकी। दूसरे नंबर पर भी पार्टी केवल दो ही सीटों पर रही उसमें से भी एक सीट कुशीनगर की थी।

कांग्रेस का यूपी में गिरावट का क्रम 2017 के विधानसभा चुनाव में जारी रहा। पार्टी 403 सीटों में 114 पर चुनाव लड़ी। राहुल गांधी को अखिलेश का साथ भी रास नहीं आया और केवल 07 सीटें ही कांग्रेस जीत पाई, 33 सीटों पर दूसरे स्‍थान पर रही पर वोट प्रतिशत महज 6.25 प्रतिशत रह गया।


वहीं 2012 के चुनावों की बात करें तो समाजवादी पार्टी ने सबको चौंकाते हुए 403 विधानसभा सीटों वाले इस राज्य में अकेले ही 224 सीटें झटक ली थीं। बसपा महज 80 सीटों पर सिमट गई थी। तब बीजेपी को मात्र 47 सीटों से संतोष करना पड़ा था जबकि कांग्रेस 28 सीटें जीतकर चौथे नंबर पर थी।

इससे पहले 2007 के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी 206 सीटें जीतकर अकेले अपने दम पर सरकार बनाने में सफल रही। मुलायम सिंह के नेतृत्व वाली सपा को 97 सीटें मिलीं जबकि कांग्रेस को 22 तो बीजेपी को को 51 सीटों से ही संतोष करना पड़ा था।

विश्लेषकों का कहना है कि दरअसल 1989 के बाद से एक के बाद गि‍रते प्रदर्शन से यूपी कांग्रेस हाशि‍ए पर चलती चली गई। केंद्र में बदलती सरकारों के समीकरण का सबसे ज्‍यादा असर यूपी कांग्रेस पर पड़ा। केंद्र की राजनीति ने जब-जब करवट ली, प्रदेश की राजनीति भी वि‍कास के वादे से दूर कास्‍ट पॉलि‍टि‍क्‍स पर आकर टि‍क गई। इस बार सपा-बसपा के गठजोड़ और बीजेपी के आगे कांग्रेस की बुरी गत तय है। फिर भी कांग्रेस अकेले दम पर चुनाव लड़ने को तैयार है। यूपी में इससे पूर्व दो बार प्रभारी की जि‍म्‍मेदारी संभाल चुके गुलाम नबी आजाद पार्टी के खोये हुए जनाधार को वापस पाने के लि‍ए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। इस बीच उत्तर प्रदेश कांग्रेस नेतृत्व परिवर्तन की भी सुगबुगाहट है। कहा जा रहा है कि पार्टी दलितों को अपने पाले में करने के लिए सूबे की कमान किसी दलित के हाथों में दे सकती है। इस कड़ी में पीएल पुनिया के नाम की चर्चा जोरों पर है।

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