7/25/2020

नागपंचमी : ऐतिहासिक महत्व



डॉ. अफजल हुसैन
afjalbhu@gmail.com
श्रावण मास के शुक्ल पक्ष पंचमी की तिथि नागपंचमी के त्योहार के रूप में मनाया जाता हैं। मनुष्यों और नागों के मध्य पारस्परिक संबंधों की परंपरा सृष्टि के निर्माण काल से ही चली आ रही हैं। ब्रह्मा के मानस पुत्र ऋषि कश्यप की पत्नी ‘कद्रु’ को नागों की आदि माता के रूप मे सम्मान प्राप्त हैं। ऋग्वेद में इंद्र को अहिःयों (सर्पों) के शत्रु के रूप में वर्णन मिलता हैं। वृत्रासुर की कथा ऋग्वेद में मिलती हैं, जिसमे वृत्रासुर का वध करते इन्द्र को प्रदर्शित किया गया है । वृत्रासुर का स्वरूप सर्प की भाँति हैं। ऋग्वेद की प्रथम, द्वितीय एवं षष्ठम मंडल के सूक्तो में सर्पों एवं नागों का वर्णन मिलता है। एतेरेय ब्राह्मण में देवों, गंधर्वों-अप्सराओं, मनुष्यों, पितरों के साथ सर्पों को ‘पंचजन’ कहा गया हैं। भविष्योत्तर पुराण के ब्रह्म पर्व में नागपंचमी व्रत-त्योहार का उल्लेख विस्तार से किया गया है।
रामायण मे लक्ष्मण एवं महाभारत में बलराम को शेषावतार माना गया हैं। पतंजलि के अतिरिक्त बौद्ध धर्म में शून्यवाद के प्रवर्तक नागार्जुन को भी शेषनाग का अवतार माना गया हैं। महाभारत के कई संदर्भों में नागों की महत्ता एवं प्रशस्ति विस्तार के साथ गायी गई हैं। भीम को वासुकि नाग द्वारा दिया गया सहस्त्र् हस्तिबल, एवं प्राणों की रक्षा करते हुए प्रदर्शित किया गया हैं। साथ ही अर्जुन द्वारा नागकन्या उलूपी से विवाह का भी वर्णन महाभारत से प्राप्त होता है। श्रीमदभागवत गीता में क़ृष्ण ने स्वयं को सर्पों में वासुकि एवं नागों में अनंत बताया हैं।
वस्तुतः सर्पों का संबंध भगवान शिव एवं विष्णु दोनों से हैं। जहाँ यज्ञोपवीत रूप मे गले में शिव ने नाग को धारण किया हैं वहीं विष्णु शेषनाग की शय्या पर विराजमान है। नागपंचमी को पूरे भारतवर्ष में दूध,लावा, नैवैद्द के साथ पूजा करने का विधान हैं। इस अवसर पर वासुकि, तक्षक, कालीय, मनीभद्र, ऐरावत, धृतराष्ट्र, कार्कौट एवं धनंजय आदि सर्पो का स्वर्ण, रजत, मिट्टी की प्रतिमा बनाकर दुग्धाभिषेक किया जाता हैं। जिससे ये नाग इनके कुटुम्बजनों को सर्पदंश से अभयदान देते है। उत्तर प्रदेश एवं बिहार के अतिरिक्त मध्य प्रदेश, पंजाब, छत्तीसगढ़ एवं राजस्थान के इलाक़ों में इस अवसर पर मल्लयुद्ध का आयोजन भी किया जाता हैं। कहीं-कहीं मनसा देवी की पूजन भी इस तिथि को देखने को मिलती हैं।
काशी का जैतपुरा स्थित नागकुप पर इस दिन शास्त्रार्थ का भी विधान हैं, जो ऐतिहासिक दृष्टि से पाणिनि एवं पतंजलि के काल से निर्बाध रूप से चला आ रहा है। इस कूप का महत्व पौराणिक हैं, एवं इस कूप को पाताल-लोक का मार्ग बताया गया हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में दरवाजों पर गाय के गोबर से सर्प की आकृति बनाई जाती हैं एवं श्रद्धापूर्वक पूजन किया जाता हैं, मान्यता है कि इस पूजन से कालसर्प दोष का निवारण भी हो जाता हैं।

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